बोलता है ग़ालिब, मिरे आईने में !

के मीर वो कहते रहे सुखन छोड़ दो …

हम भी कहते रहे के फिर ग़ालिब क्या है …

एक मैं में मैं नहीं

तो फिर तू में तू क्या है ?

बोलता है ग़ालिब मिरे आईने में !

जी हाँ आज उस्ताद जी का जन्मदिन है …तो कुछ अपने तजुर्बे और उनकी नेकदिली जो हमपे मेहरबान हुई उसकी बात करते हैं ..

अक्स फरियादी है -ये जो तस्वीर आप देख रहें हैं – ये मैंने बनाई थी – हाँ मैं करीबन कुछ साल पहले मोम का फ्रेम बना रही थी जहाँ मैं पंख भी डालना चाहती थी – कुछ सूखे फूलों कि पंखुड़ी भी डाली थी शायद गुलाब की … कुछ रंग भी डाले थे मोम में .. उस आधे से फ्रेम में पंख फोकस पे होना था — पर कहते हैं न कि … अक्स फरियादी है मैं उस वक़्त न शेर समझने कि हैसियत रखती थी न ग़ालिब को बनाने की पर वो आ ही गए … अपना आशीर्वाद देने …. या मुझे दिख गए …..अब जो मान लो … मुझे उनकी वो जिंदादिली दिखी … न मुझे उर्दू आती है … न मैं उनकी तरह उर्दू का ज्ञान रखती हूँ पर उन्होंने मुझे बहोत ही खूबसूरत लब्ज़ जाने कहाँ से प्रेरणा में दिए हैं जिनके बारे में शायद उस वक़्त मुझे जियादा पता नहीं था या मैं उन्हें अपनी लेखनी में इस्तेमाल करने कि हिम्मत भी नहीं कर सकती थी. पर हैं न जादुई सी बात और गुरु की सौगात कि वो आये और मुझे सिखा गए

मोम के ही बुत में

आये तो सही

चाप अपनी हमारे लिए

छोड़े तो सही

ये पिघल के ही जमा हुआ है

ये जम के पिघलेगा

बोलता है ग़ालिब मिरे आईने में –

हाँ वो गीत बन कर आये गीत दे गए .. मैं गुनगुनाती रह गयी… 2012 की ये लौ …

आज भी मुझे विश्वास नहीं होता ये आया कैसे … इसका नाम मैंने तिरे साये में रखा था तब … पर सच कहूं तो बोलता है ग़ालिब जियादा पसंद आने लगा है …गा कर Soundcloud पे हिम्मत कर डाला था तब … आज हिम्मत नहीं पर उनकी सालगिरह पर उन्हीं को समर्पित है …

तिरे साये में!

(निकले थे बज़्म ऐ मौला … के तेरी आशनायीं में,

ये बेमियादी फुरकत …के जुर्ररत आफतायी में!)

के बोलता है ग़ालिब मिरे आईने में

के गफलत की शोखियाँ हैं तिरे साये में

सूखे मलबों के लावे उठा लाये लेकिन

चमके सितारे लगे हैं वो पत्थर तिरे साये में

तसव्वुर में ख्वाईश के दाने मिले हैं

वो मोती के माले बने हैं तिरे साये में

साफगोई से कहते हैं मिरा अक्स दे दो

ये बेहका शायर दिखे है तिरे साये में

तृप्ति

धर्मवीर भारती – उसी ने रचा है

नहीं-वह नहीं जो कुछ मैंने जिया
बल्कि वह सब-वह सब जिसके द्वारा मैं जिया गया


नहीं,


वह नहीं जिसको मैंने ही चाहा, अवगाहा, उगाहा-
जो मेरे ही अनवरत प्रयासों से खिला
बल्कि वह जो अनजाने ही किसी पगडंडी पर अपने-आप
मेरे लिए खिला हुआ मिला
वह भी नहीं
जिसके सिर पंख बाँध-बाँध सूर्य तक उड़ा मैं,
गिरा-गिर गिर कर टूटा हूँ बार-बार
नहीं-बल्कि वह जो अथाह नीले शून्य-सा फैला रहा
मुझसे निरपेक्ष, निज में असम्पृक्त, निर्विकार

नहीं, वह नहीं, जिसे थकान में याद किया, पीड़ा में
पाया, उदासी में गाया
नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुँध गया
भर आया
जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को
अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा
पड़ता हुआ पाया-

हाय मैं नहीं,
मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है
-हर बार बचा है,
मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया
पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में, लक्ष्यहीन भटकन में
मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है-
-उसी ने रचा है !

धर्मवीर भारती जी का जन्मदिन २५ दिसम्बर को होता है – ये मुझे पता नहीं था मैं तो ग़ालिब को पढने और समझने में खोयी हुई थी पर वो कहते हैं न उस्ताद से जब वफ़ा रखो वो औरों से भी वफ़ा करना सिखाते हैं – धर्मवीर भारती जी ने मेरी हिंदी साहित्य की जानकारी की एक तरह से शुरुआत थी – घर पे जब मैं अपनी कॉमिक्स कि किताबें – चम्पक, नंदन अमर चित्र कथा इंद्रजाल पढ़ लेती थी तो मम्मी पापा के लिए आये धर्मयुग की बारी होती थी – धर्मयुग में कहानी ढूंढती और कार्टून भी – दोनों का ही बचपन से शौक था – धर्मयुग ने ही मेरा परिचय बचपन से हास्य कवी के. पी . सक्सेना जी, पद्मा सचदेवजी, शिवानी महादेवी वर्मा से कराया – उनकी सम्पदिकियी तो पढी थी पर उस पत्रिका के अलावा ये हैरत की बात है कि मैंने भारती जी कि कोई रचना नहीं पढ़ी – आज जैसे कोई अन्दर से कह रहा था कि २५ को किसी कवी कि है देखो – चेक तो करो – और जब मैंने देखा भारती जी तो खुद को रोक न पाई – उनकी कृतियाँ ढूँढी क्यूंकि उनकी कोई किताब मेरे पास नहीं हैं – और सभी कविताओं में सोचो क्या हाथ लगा – मैं तो उस जादुई क्षण में गुम गयी जैसे कोई खज़ाना मिला तो पर इतनी ख़ुशी हुई कि मैं खजाने को कैसे सम्भालूँ पता नहीं – अभी ग़ालिब के पहले शेर पे ही रचनाकारों की बात हुई थी और भारती जी की ये कविता कई धरातल पर छू गयी – मैंने इसे बार बार पढ़ा है पर इस वक़्त सही नहीं लगता कि मैं तैयार हूँ इसकी विवेचना करने के लिए – कई रास्तों पे ले जाती है ये कविता – हाँ उन पगडंडियों पे भी जहां पर अपने-आप
मेरे लिए वो खिला हुआ मिला –
मेरा क्रिसमस गिफ्ट मुझे मिल गया – और आपका – इसे पढ़िए सुनिए आत्मसात कीजिये – और अगर आप लिखते हैं तो अपनी लिखने कि यात्रा से जोडीयेगा- मैं ज़रूर इस कविता के साथ फिर वापिस आऊँगी

नक्श फरियादी है!

नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का

काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का

मिर्ज़ा ग़ालिब

शब्दों के मायने समझने कि कोशिश करते हैं – नक्श -चित्र, निशान

फरियादी – फरियाद करने वाला, शोखी – तीखापन, दिलकशी, सुन्दरता,

तहरीर, -लिखावट, चित्र की रेखायें, पैरहन – लिबास, वस्त्र,

पैकर ए तस्वीर – चित्र का आकार

मिर्ज़ा ग़ालिब के दीवान यानि कि किताब का ये पहला शेर है -और इस पहले शेर के एहमियत कि बात ही कुछ और है -इसके दो माने साझा करूंगी – पहला जो किताबों में और ढूँढने पे कुछ साइट्स में मिले और दूसरा बार बार पढने पे, एक रचनाकार की हैसियत से मुझे जो समझ आया, ग़ालिब मुआफ करैं – सभी उस्ताद माफ़ करैं गर कोइ भूल चूक हो! गुस्ताखी मुआफ हो! वो कहते हैं न कि कोई भी रचना जब तक व्यक्तिगत तौर से आत्मसात न हो तब तक आप उस से खुद एक जुड़ाव महसूस कर नहीं कर सकते – और इस शेर ने मुझे बाँधा ही नहीं बल्कि स्याहदीप्ति के होने का विश्वास दिया है!

ईरान में एक रिवाज़ था जब भी कोई व्यक्ति विशेष तौर से जिसके साथ कोई अन्याय हुआ हो उसे फरियाद करना होता था तो वो एक कागज़ी लिबास पहन लेता था, उस लिबास को देखकर बादशाह को समझ आ जाता था कि फरियादी आया है और उसे इन्साफ चाहिए, उस तरह से दीवान कि शुरुआत में इस शेर का होना खुदा इश्वर भगवान् कि तरफ इशारा है कि किस खुदा से हम सब फ़रियाद करते हैं वही खुदा जिसने अपनी ही मौज में इस दुनिया को रच दिया – छोटे से छोटा आदमी बड़े से बड़ा आदमी सभी अपनी ही फ़रियाद कर रहे हैं उस इश्वर से जिसने अपनी इक मौज में हम सभी कि जीवनी लिख डाली – इस कागज़ी यानी कि जो हमारा नश्वर शरीर है उसमें कोई भी खुश नहीं है! तो इश्वर ने, भगवान् ने ऐसा क्यूँ किया!

ये भी एक समझ है कि किताब कि शुरुआत में ईश्वर को याद करना ज़रूरी होता है , और ग़ालिब का इशारा खुदा कि तरफ अपने ही अंदाज़ में हो

मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक जिसमें नसीर साहब ने अभिनय किया है – उसकी एक विडियो क्लिप देखी थी जिसमें इक महफ़िल में जब मिर्ज़ा ये शेर साझा करते हैं – तब सभी मौजूद शायरों को भी ये शेर बेहद भारी लगा था

कुछ विचार ऐसे भी मिले कि ये शेर ग़ालिब ने यूँ ही लिखा है इसका कोई अर्थ नहीं है

मेरी जो समझ बनी – एक रचनाकार कि हैसियत से, एक Poet जो बार शब्दों को बार बार पढ़ कर आत्मसात करता है-कोई भी रचनाकार जब अपनी रचना कि शुरुआत करता है तो मैंने सोचा वो क्यूँकर कि ऐसा लिखेगा -मैंने उसे अपने अनुभव से जोड़ा, जो कुछ भी मैंने अब तक थोडा बहोत लिखा है – जो कुछ भी हम रचते हैं या उसको उभारने कि कोशिश करते हैं, चाहे चित्र हो या कविता – वो उस रचनाकार की मौज पर बहोत निर्भर करता है, किस भावना ने प्रेरित क्या है – हर रचना, हर कृति जो बन कर निकलती है उस रचनाकार कि मौजूदा भावनाओं पर बहोत निर्भर करती है – रचनाकार जिस दिलकशी से उसे रचे वही दिलकशी उभर कर आती है – रचनाकार अपने साथ कई मनोभावों को ले कर लिखता है तो वो रचना भी फरियाद करती है कवी या शायर से – ये सच है कि शब्द भी फरियाद करते हैं उस कवी से उस रचनाकार से आपकी मौज , वो कौन सी मौज है और उस मौज से हम फरियाद करते हैं -कागज़ पे जो कुछ भी उभर कर आये, जो कुछ भी सुन्दर आये वो मौज बनी रहे ताकि जिस किसी भी चीज़ कि शुरुआत हम कर रहे हैं, किताब कि कविता कि, वो बेहद खूबसूरती से आये !

तो मुझे ऐसा लगता है कि ग़ालिब अपनी रचनाओं कि फ़रियाद अपनी मौज से कर रहे हैं- और कह रहे हैं कि भले ही ये लिबास कागज़ी है पर इसकी बनावट मेरी मौज, मेरी दिलकशी से भरी है

और क्यूंकि मिर्ज़ा ग़ालिब को हम सेलिब्रेट कर रहे हैं – एक शिष्य की हैसियत से मेरी भी एक फ़रियाद है ग़ालिब कि रचनाओं से कि परत दर परत ग़ालिब की गूढ़ कागज़ी रचनाओं को ठीक से समझ पाऊँ उनके साथ इन्साफ कर पाऊँ और भूल चूक उस्ताद माफ़ करैं!

ये थी मेरी समझ, आशा है और विश्वास है कि उस्ताद मिर्ज़ा ग़ालिब कि रचनायें यूँ ही मुझे प्रेरित करती रहेंगी और मेरी समझ बनाती रहेंगी, बढाती रहेंगी

इक कोशिश है इक हिम्मत है !

पन्नों का आसमाँ!

पन्नों का आसमाँ… पन्नों का आसमाँ

उसपे तारों का कारवां … तारों का कारवां

चमकीली बुलबुलाहट लिए

रौशन सा समाँ ….रौशन सा समाँ!

पन्नों का आसमाँ… पन्नों का आसमाँ

किरणों की खिलती रागिनी में

चहकता सा जहाँ…. चहकता सा जहाँ

चढ़ते धूप की आजमाईश …

के जोश का जहाँ….

उतरते सूरज की ख्वाइश में …

खामोश राहत का जहाँ ….खामोश राहत का जहाँ

पन्नों का आसमाँ… पन्नों का आसमाँ

बादलों सी उमड़ती घुमड़ती साजिशें

उसपे बिजलियों की कड़कती आदतें

बूंदों की खनखनाहट में आप हो गवां

रिमझिम बोलियों की है कोई पनाह

पन्नों का आसमाँ… पन्नों का आसमाँ

चाँद भी है खेलता खोजता …. यहाँ अपनी दास्ताँ

लुका छिपी में तौलता हर सुखन की जुबां

पन्नों का आसमाँ… पन्नों का आसमाँ

पन्नों का आसमाँ… पन्नों का आसमाँ

तृप्ति

20 नवम्बर 2021

शब्द सारथी

काफी दिनों से कुछ नियम छूटा हुआ सा है… इस वर्ष की शुरुआत में तय किया था कि रोज़ लिखेंगे और खूब लिखेंगे पर शायद विचार गहरे नहीं हुए थे.. या नियम नहीं बना पाई … फिर तय करना कि सच … रोज़ … हो पायेगा … इस भाग दौड़  में … जहाँ शब्द आजकल मूक रहना जियादा पसंद करते हैं… या तय नहीं कर पाते उनके आने से कुछ फर्क पड़ेगा… जाने कैसे सी सकुचाहट हैं …मैंने तो नहीं रोका … खुद ही ठिठके से रहते हैं … या मिल के गुम जाते हैं…

…. मेरे सारथी मेरे शब्द…

…अभी तो बहोत जगह जाना है

… कई जगह हो आना है ….

ख़ामोशी भी निशब्द नहीं  –

ख़ामोशी में सिर्फ आवाज़ नहीं …

ख़ामोशी के पार …

शब्द सरोवर में

गोता लगा आना है ..

चलो सारथी ….

तिनका हो …

या फूलों का मंज़र ..

या पूरा ही बागीचा हो…

कहो सारथी ..अब पथ पर निरंतर हमको चलना है..

कैसे कैसे घटित हुआ …

पृथ्वी के आर पार …

अंतरिक्ष के कई छोर …

चाँद की शीतल ज़मीन …

सूरज की चमकीली लौ …

तारों की टोली वोली …

चलो सारथी …

इन साँसों से उन साँसों तक ….

जो उठता गिरता ताना बाना …

इक तार या दो  तार पे …

इनका कौतुक इठलाना ….

चलो सारथी …चलते हैं …

घने जंगलों में

जिस  बरगद पे झूला  झूलेंगे

उसी  के राजा से फिर रस्ता नया  पूछेंगे

… थक जाओ तो झरनों के कनारे कुछ पल यूँ ही सोयेंगे

… फिर उठेंगे और चलेंगे ….

चलो सारथी …

अब काव्य पथ पर निरंतर हमको चलना है

चलो सारथी …

तृप्ति (१३ मई २०२०)

 

आती तो है……!

आती तो है … पर वो बात नहीं

वो वक़्त बेवक्त सी चहलकदमी

फुसफुसा जाना

छेड़ना…

चुप सी थपकियों में सिमट

गुम जाती है कहीं

जाने क्या कहे और

झड़ी लग जाये..

आती तो है…

बुलाती भी नहीं

न खबर लेती हूँ

कहाँ खोयी हो पूछती तो हूँ

पर जवाब का इंतज़ार नहीं

आती तो है

घूम फिर जाती है

कुछ टटोलती

पीछे नहीं पड़ती

न खफा होती है

आती तो है…

शक्ल क्या बदल गयी

या छाप मेरी भूल गयी

क्यूँ नहीं है बांधती

क्यूँ नहीं ये रोकती

कब हंसी पलट जाये

इसलिए नहीं टोकती

आती तो है …

बात मेरी मान लो

गुफ्तगू को जान लो

बस यूँ ही सिफर सिफ़र

न कह मेरी सहर सहर

….आती तो है…

यूँ बूझने की बात

फिर करो तो आप

यूँ ठहर ठहर

शाद भी खिले जनाब

आती तो है…

थाम शायद लेंगे हाथ

उँगलियों के पोरों से

कोरी ज़मीनों पे

कुछ खेंच लेंगे ही

कुछ समेंट लेंगे ही …

आती तो है… आती रहेगी सदा…

 

 

 

 

 

लिखना भी चलने से कम नहीं !

यूँ कहैं तो मालूम नहीं के लिखना क्या है… पर जो अब लिखने चले हैं तो लिखते हैं.. सही है… लिखना भी चलने से कम नहीं.. इक कदम का ताल मेल है.. उंगलिया जब फिरती हैं अक्षरों की मुंडेरों पे तो ये सीधी चाल तो होती नहीं , कुछ थिरकती हैं कुछ इधर उधर डोलती हैं… चलतीं तो हैं हाँ सीधी दिशा नहीं चलतीं .. शायद लेखक भी चाह कर सीधा नहीं चल पता… घूम फिर आता उन्हीं पन्नों पे है पर सीधी चाल सिर्फ भाषा की डोर लिए दिखतीं हैं… वो जो अंतस में बेडोल उमड़ता घुमड़ता सा बादल है उन्हें ही शायद टपका सा डालता है.. फिर पन्नो की हडबडाहट सुनी है कभी .. खैर .. लिखने वाले जब चलते हैं तो बाई से दायीं को जाते हैं .. ये उनका और पन्नों के बीच का समझौता नहीं यहाँ भी कुछ नियम के कयास हैं… अंतस का कोई नियम नहीं … कहीं भी कभी भी घूम जाता है. इस से किसी को सरोकार नहीं .. कोई जानना भी नहीं चाहता है.. कह दो तो भी लोग गवाह मांगेंगे … अब लाओ गवाह …. खैर ..चल रहे थे शायद… कहो कितना चल लिए यही कोई दस कदम नहीं शायद सौ.. क्या फर्क पड़ता है…

के वो कह रहे हैं

कुछ कहा है

हमने नहीं सुना

हमने कब कहा है

फिर भी ये मंज़र है

की न कुछ कहा है

न हमने कुछ सुना है

तृप्ति

ये क्या कम है!

गर हो उनसा हौसला … तो फिजाँ को नाज़ है

वो जो चल पड़े तो … तो खिलता है आसमां

जुबान गर आपके चुप में भी बोलती है .. तो समझिये के कुछ रह गया कहने को

ज़िन्दगी की इस भाग दौड़ में सुना काफी देखा काफी .. पर जो वो दिन भर समेंट से आये वो शायद कहीं अटका तलाशता है अपनी ही आज़ादी को…

कभी इसे अपनी कभी किसी और से आती मान बांचने की कोशिश करते हैं… कभी होती है कभी नहीं

ज़िन्दगी कई अनकही कहानियों का तानाबाना है..हम आगे चले जाते हैं और कहानियां छूट जातीं हैं .. या जब उनका सिर पैर न समझ आये तो एक अनुभव का नाम दे तसल्ली ले लेते हैं..

न कहानियां ही पूरी होती हैं न हमारी तसल्ली..

पर हाँ आईना देखते हैं और कहते हैं.. यार बड़ा छोटा दाएरा था तुम्हारा … इतने खूबसूरत लोग हैं यहाँ …

फिर जाने क्यूँ सिमट सी रही …

कुछ उनकी रौनके आयीं कुछ उनकी अमीरियत और हमें अपनी गरीबी पे होश आया

दयेरों में कैद खुद के आगे देखना मुश्किल है नामुमकिन नहीं

पर शायद जब जियादा समझ न आये तो कह देना के हाँ हैं यहाँ … थोड़ी अन्दर की खिड़कियाँ और खोलनी पड़ेंगी ..

पर सच भी यहीं हैं मन भी है जो है सो है.. जो नहीं है वो नहीं है … और जो … नासमझी है वो भी है …और जो समझ के भी किस भेद में छिपी है वो भी … पर आज एक अच्छी बात पढ़ी जो देमाग ने कई बार कही … जिंदगी जीते हैं शायद कुछ न समझना भी कभी कभी बहोत बड़ी समझ है…

“एक तरबियत है उनकी

वो रोज़ बोलते हैं

कहाँ से बोलते हैं किधर से बोलते हैं

हम उनको ढूंढते हैं…

ढूंढना शायद अब नहीं है…

पता तो नहीं पर शायद नापता सही है!

ये क्या कम है की

वो बोलते हैं…

और हम सुन लेते हैं!…

तृप्ति

 

 

मांझे का इक छोर लिए !

आये थे उड़ गए… कुछ कह कुछ सुन चले गए… हमने सोचा था फिर काफिये की लड़ी चलेगी… पर शायद … जल्दी थी… कागजों के आईने में जाने क्या क्या अक्स उभारना चाहते हैं… पर फिर उड़न छु हो चले जाते हैं… जैसे यूँ ही बाँट रहें हैं…. लेनी है इसी वखत तो ले लो… नहीं तो हमारे पास भी वखत नहीं है… सो चले गए…

आजकल के दौर में गर वखत है तो सिर्फ वखत के पास… बाकी सब भाग रहें हैं… कहीं न कहीं … किसी न किसी से

किसी न किसी के लिए …

ये घडी की चक चक सेकंडों वाली … चुप ही न होती है… जाने क्या समझ इसे बनाया गया था … इसका नाम सेकंड क्यूँ रखा… फर्स्ट क्यूँ नहीं… ये भी एक    कहानी है ढूंढनी पड़ेगी…

तो अमूमन हर दिन लिखने की ख्वाईश लिए हमने भी पहल शुरू की है… सेकंड गर रुकता नहीं तो हम जियादा पीछे नहीं हैं… बस उसकी तरेह हमने दिन तय कर लिया है…

कुछ चुप सा है मुआमला पर ठीक है जनाब

बोलियाँ भी कब किसी हुईं भला

आज कुछ कह जातीं हैं

कल कुछ

—–तो वो जो कुछ कहे जा रहे थे कल उनको बांचे या आज की नमीं में ढूँढें कोई गिला

शर्त पाक हो या आपसी ज़िरेह

इस मंज़र का कौन सा सिरा

…… जिस कारवां में शामिल वो खाब का यकीन

….. उस कारवां में कामिल वो शाद सा हसीं

…………………………………………………………जो दिखे वो कल इस तरेह

….मांझे का इक छोर लिए …. रुख को देखते …

….. हवा है …बहती भी है बहकती भी है ..

…. कभी कभी कम कभी कभी जियादा …

तृप्ति

 

अंतर्ध्वनि!

ध्वनि कुछ परेशान सी घूम रही थी.. उसे पता नहीं था ये अंतर जो था वो क्या था.. किस किस्म का शोर यूँ बडबडा कर उसके ही होठों से चला जाता और वो समझ भी न पाती … क्या था ये … क्या ये सच था या उसका कोई वहम … या कोई टोटका … अपने इस टोटके की बात को  खारिज करती हुई वो फिर उहापोह में जुट गयी… क्यूँ … एक एहम सवाल है.. उसे जवाब चाहिए था… जब वो ध्वनि थी तो .. उसे किसकी ध्वनि उसी की ही जुबा से आती थी…

कहीं भी कैसी भी खड़ी हो बैठी हो .. चलते फिरते … गूंजती से वो आवाज़ …. मोहब्बत… ये नया क्या था.. नया नाम फिर से…

और वो जो उसे कभी हंसाता था कभी खीजाता था… के ये कैसा सा सवाल है …

तुम्हरी शादी हो गयी है..

वो कहती … हाँ …

क्यूँ हो गयी है… ?

और चुप्पी…

कुछ अजीब सी कड़ी के ये शब्द … क्यों पे तो जाने क्यूँ उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार लगता था.. फिर ये … ये कैसे से सवाल थे.. क्यूँ थे… जाने कितने सालों से इन सवालों और भी न जाने कुछ कुछ अजीब सी बातें … कुछ समझ आतीं कुछ नहीं… कौन सा साया था ये…ध्वनि ने अंतर से कहा… खूब खेल रहे हो .. मेरा भी दिन आएगा… यूँ कोई छिप कर सवाल करता है क्या … सामने में क्या दिक्कत थी ….

ये कैसी सी अमीरियत की बोली थी .. जिसने बोलना तो था …. पर सामने खर्च नहीं करना था..

शायद कुछ अब भी अमीर लोग हैं इस दुनिया में जो यूँ ही ख़त लिखते हैं हवाओं में… पैगाम किसी और का … पास किसी और के… समझ आया उसे … हाँ सच था… वो कैसे भूल गयी…

कई अंतरों में कसमसाते से शब्द और किसके पास आते … ध्वनि है वो…

सो खोये से भटके से … परेशान से …. न कनारा मिले शब्द शायद उसके पास आते थे… कुछ जीवंत लम्हों के लिए

तृप्ति

14 मार्च 2018