ग़ालिब …. दीवाने ग़ालिब …. अब इन्हें कैसे टालें …. अलमिरे से कताब निकली और जो पहली बार पढ़ी …. चौंके … अब इसे कैसे लिखें… क्यूँ.. मैंने कहा फिर से खोलते हैं… शायद गलत निकला है… तो दो बारी खोला आज का जादुई पन्ना… सिलसिला इस जादुई पन्ने का शुरू करना था… और ग़ालिब से न करूँ तो गुस्ताखी तो थी ही और सो पहला पन्ना ये है..
पन्ना ३११
मैं उन्हें छेड़ूँ, और कुछ न कहैं,
चल निकलते, जो मै पिए होते
केहर हो, या बला हो, जो कुछ हो
काश्के, तुम मिरे लिए होते
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी, यारब, कई दिए होते
आ ही जाता वह रह पर, ग़ालिब
कोई दिन और भी जिए होते !
(………………… ग़ालिब ए दास्तान का क्या पूछते हो …
जादू भी जानते हैं .. मंतर भी फूकते हैं
देखिये पन्ने की हाजिरी … घूम कर फिर मिलते हैं )
गोया हम दूसरा पन्ना ही भूल गए … खैर फिर याद आयेगा तो लिख लेंगे…
…………जाने क्या जादू है ग़ालिब की याद में
जाने क्या जादू है ग़ालिब की याद में
… नाम लो और जुबां जुटती है … नज़्म हाथ हिलाती है…
ठहरो … रुको… अब नाम ले ही लिया है तो कुछ लिख भी जाओ…
कुछ कह भी जाओ कुछ सुन भी जाओ…
….मिरे शहर को ख़ास इल्म है
मिरे शहर को ख़ास इल्म है
कहीं भी हो मीरा शागिर्द उसे
ग़ालिब नाम हो … और मुमकिन है…
खैर… फिर मिलते है… नए पन्नों के साथ 🙂
(३ मई २०१९)