मुमकिन हो के सामने आये
जो धड़कन की धड़क में हो
मुमकिन हो के निकल जाये
जो जुबान की पहल में हो
मुमकिन हो की समझ आये
जो आखों की नमी में हो
मुमकिन हो की इन्सान का इन्सान से
कुछ इंसानियत का हो
मुमकिन है की एक मंदिर भी ऐसा हो
जहाँ इंसानियत भी पूजी जाती हो
(२० जनवरी २०२०)
लिखना क्यों ज़रूरी है
क्या क्या लिख्खुं
कुछ बेवजह भी रहने दो
कुछ चुप सांस लेने दो
ये उबड़ खाबड़ रास्तों से
घूम फिर जो आता है
कुछ तो बांच लेने दो
जो इतना जोर लगाता है
मेरी मानेगा नहीं
पर फिर भी वही शब्द दे जायेगा
जाने जिद की क्या पड़ी है
क्या उसे मिल जायेगा
क्या मुझे मिल जायेगा
फिर भी वही हूक हलक की
देने को तैयार है
जाने कैसा जिद्दी है
अपनी जुबां कैद सी लगती
क्यूँ कर कह लिखे
सुन रहे हैं कुछ इस तरह से
कुछ मूक सी तय्यारी है
बोल लो यूँ छिप छिपा के
अब इसमें क्या परेशानी है
यूँ नहीं तो यूँ सही
आने को आ जायेगा
मैं चुप रहूँ न रहूँ
वो रास्ता बना आएगा
(१८ जनवरी २०२०)
मन तो याद दिलाता है
गिनती के कई काम
फिर भी अड़ा पड़ा है
जाने क्यूँ कौन सी अटकन
घेरे खड़ी है मुझको
रुक रुक चलती रेल सी
पटरी पे नहीं आती है
जाने किस धक्के की
खोज में यूँ बैठी रह जाती है
जुगत लगा रहे हम कई
देखो फिर तैय्यारी है
मन का काम है याद दिलाना
एक एक कर कदम बढाओ
फिर कोई न बेगारी है !
(January 17, 2020)
एक कापी ऐसा देना
जिसमे सिर्फ हो
पीछे का पन्ना
आगे खूब घिसाई हो
पीछे खूब लिखाई हो ..
कुछ चंचल से बिखरे शब्द
कुछ यूँ त्त्युं का आना
जैसे जैसे आयेंगे …
कभी सेंध लगा
कभी बिगुल बजा
कभी घपलों के कोने से
छिपते छिपाते …
कूदे फांदे….हमसे कब बच कर जायेंगे
सांसों का सुराग है मिलता
वो कब तक सांस छिपाएंगे
हांफते हूफ्ते … भाग भाग के पन्नों के हो जायेंगे
(जनवरी १६, २०२०)
जाने क्या रोकता है मुझे
जाने क्या मोड़ता है मुझे
क्यूँ हर दिन की पहल एक सी नहीं
क्यूँ उमड़ता घुमड़ता है कहीं
कोई बादल बांधता
धूप सेंकते रहे … आग तापते रहे
फिर रेंग कर उभरता
प्रश्न चिन्ह लिए हुए
पहचाना ?
नहीं … नहीं पहचाना
ज़रुरत नहीं … बादल हो …
आओगे ….जाओगे …
कभी अच्छे लगोगे … कभी समझ नहीं आओगे ….
विज्ञान मेरा विषय नहीं… जब पढ़ रही थी
और किसी ने पूछा था,
बताओ बादल कैसे बनते हैं ?
तो हमने कहानी बनाई थी !
जब ज्ञानी ने बताया था
तो मैं चकराई थी
बादल पोटली से थे … कई चोरों ने गुप छुपाये थे …
जब भी एक दूसरे की खोलते पोल
बारिश जम के आती थी
भला ये अंग्रेजी की दो लाईनों में कैसे कैद हो
कहानी कई ज़माने की है …
खैर … बड़ी उदासीन सा जवाब लगा
गोया ये बादल बनते है या मशीन
ठीक है पढ़ लेंगे … मेरी समझ के बाहर हैं
बात पूरी याद नहीं पर आज भी हँसते हैं
बादलों की बनावट पे जाने कितने किस्से हैं
छज्जे पे आज धूप ने रौशनी बिखेरी थी
छुटियाँ बहोत हुईं अब काम की बारी थी
(जनवरी १५, २०२०)
आज कुछ अच्छी बात सुनी
किसी ने हर इक कदम को
जीत की परिभाषा बताया
खुद की झेंप से … खुद के रोक से
खुद की झिझक से …खुद की खींच से
क्यूँ ठिठक ठिठक के पाँव जम रहे
क्यूँ ये हाथ न बढे …क्यूँ रुका रुका रहे …
जो एक कदम कदम से बढ़ चलो …
हर दिन का कदम भी जीत है …
बढ़ चलो … चल चलो ..
लिख चलो … कर चलो
जोर ऐ आज़माईश खुद से है …
बढ़ चलो … चल चलो …
लिख चलो… कर चलो..
(१० जनवरी २०२०)
अटका हुआ है कुछ कहीं
बेतरतीब तबीयत लिए
घूमता घूमाता कोई फलसफा
कुछ तो पक रहा है
ज़ेहन के आंच में
कुछ उलझी सी सांस में
आने को है …
ये खैरियत है …
आने को है …
ये समझ है
….. क्या कब बरस के आये
क्या पता …
कुछ जब बनने को है
पन्ने भी खुश हैं …सियाही भी ..
आने को है ….
९ जनवरी २०२०
अब पलट के भी नहीं लिखते
या सूझती वो शरारतें नहीं
क्या गज़ब की बात है
के लिखते ही कम हैं …यूँ ही …
…क्या हुआ क्या मंज़र छूटा
या बात नहीं ठहर रही …
लब्ज़ आ रहे…. जा रहे …
भीड़ बहोत हो गयी … या मैं हुई गुमशुदा
भीड़ थी तो सदा … ठहर सुन लेते थे
कुछ उनकी बात होती थी
कुछ अपनी कह लेते थे
….कुछ वो नहीं सुनना चाहते …कुछ हम नहीं बताना …
इस कशमकश में रुका सा है फसानों का फ़साना
कोशिश करते हैं कुछ कान मलते हैं ….
कुछ रुक रुक के चलते हैं ..
कुछ ज़ी से कहते हैं …सुनते हैं …
(१९ दिसम्बर २०१९)
कुछ लिखा क्यूँ नहीं…. ये देखते हैं
कापी के पीछे की तस्वीर देखते हैं ….
ऊपर …नीचे….नीचे … ऊपर ….ह्म्म्म.
जी जनाब तो लिख के कुछ छोड़ा है …
आज शायद पकड़ा है…
……..जाने कब लिखा याद नहीं… छाप रहे अब … कोई बात नहीं…
बात!
ये क्यूँ ज़द्दोज़हद है …
हर बात पे
हर बात की
के उनसे बात हो
हर बात के बात की ….
…………………………………..ग़ालिब से कर रहे थे यूँ ही कुछ ठिठोली …..
लिख लूं जो आये
…… इस दरमियाँ से उस दरमियाँ
जाने कब वो गुम हो…
…..इस दरमियाँ से उस दरमियाँ
हमको ये ग़ालिब केह गए….
केह गए
केह गए
चुप आधी रात है…
हाँ…सुर्ख सुखन की बात है
रेखता लिखूं या रुबाई?
….इस लम्हे में जो दे दिखाई ….
कर वो वही लिखाई…. .
तृप्ति (छपने का दिवस ०२ मई २०१९)
आलम ए इत्तेफाक में कुछ पोशीदा से ख्याल
और कुछ नज़्म की नज़र का इंतज़ार ….. 🙂
राहे बशर के ये मुआमला किया है
हम तो कताब ए सुखन को झांकते हैं
और कुछ न समझ यूँ ही भागते हैं
और वो खुशबूओं में लब्ज़ लिए आते हैं ….
(बड़ी हिम्मत से कुछ उठाने गए थे..
कुछ न समझ भाग आये थे.. लब्ज़ थे के भांप गए
… जादुई पन्ना न सही … परचा ही ले लो
… … आज कुछ कापी के पीछे ही लिख लो 🙂
(कलम २८ सितम्बर २०१८ की – कापी के पीछे .. यूँ ही!)
क्या कायनात, के इस फुरक़त में …जुबां गुम है
क्या हकीकत, के इस इबादत में …हया गुम है
(कलम १७ अगस्त २०१८ की – कापी के पीछे…यूँ ही! )