आये थे उड़ गए… कुछ कह कुछ सुन चले गए… हमने सोचा था फिर काफिये की लड़ी चलेगी… पर शायद … जल्दी थी… कागजों के आईने में जाने क्या क्या अक्स उभारना चाहते हैं… पर फिर उड़न छु हो चले जाते हैं… जैसे यूँ ही बाँट रहें हैं…. लेनी है इसी वखत तो ले लो… नहीं तो हमारे पास भी वखत नहीं है… सो चले गए…
आजकल के दौर में गर वखत है तो सिर्फ वखत के पास… बाकी सब भाग रहें हैं… कहीं न कहीं … किसी न किसी से
किसी न किसी के लिए …
ये घडी की चक चक सेकंडों वाली … चुप ही न होती है… जाने क्या समझ इसे बनाया गया था … इसका नाम सेकंड क्यूँ रखा… फर्स्ट क्यूँ नहीं… ये भी एक कहानी है ढूंढनी पड़ेगी…
तो अमूमन हर दिन लिखने की ख्वाईश लिए हमने भी पहल शुरू की है… सेकंड गर रुकता नहीं तो हम जियादा पीछे नहीं हैं… बस उसकी तरेह हमने दिन तय कर लिया है…
कुछ चुप सा है मुआमला पर ठीक है जनाब
बोलियाँ भी कब किसी हुईं भला
आज कुछ कह जातीं हैं
कल कुछ
—–तो वो जो कुछ कहे जा रहे थे कल उनको बांचे या आज की नमीं में ढूँढें कोई गिला
शर्त पाक हो या आपसी ज़िरेह
इस मंज़र का कौन सा सिरा
…… जिस कारवां में शामिल वो खाब का यकीन
….. उस कारवां में कामिल वो शाद सा हसीं
…………………………………………………………जो दिखे वो कल इस तरेह
….मांझे का इक छोर लिए …. रुख को देखते …
….. हवा है …बहती भी है बहकती भी है ..
…. कभी कभी कम कभी कभी जियादा …
तृप्ति