यूँ कहैं तो मालूम नहीं के लिखना क्या है… पर जो अब लिखने चले हैं तो लिखते हैं.. सही है… लिखना भी चलने से कम नहीं.. इक कदम का ताल मेल है.. उंगलिया जब फिरती हैं अक्षरों की मुंडेरों पे तो ये सीधी चाल तो होती नहीं , कुछ थिरकती हैं कुछ इधर उधर डोलती हैं… चलतीं तो हैं हाँ सीधी दिशा नहीं चलतीं .. शायद लेखक भी चाह कर सीधा नहीं चल पता… घूम फिर आता उन्हीं पन्नों पे है पर सीधी चाल सिर्फ भाषा की डोर लिए दिखतीं हैं… वो जो अंतस में बेडोल उमड़ता घुमड़ता सा बादल है उन्हें ही शायद टपका सा डालता है.. फिर पन्नो की हडबडाहट सुनी है कभी .. खैर .. लिखने वाले जब चलते हैं तो बाई से दायीं को जाते हैं .. ये उनका और पन्नों के बीच का समझौता नहीं यहाँ भी कुछ नियम के कयास हैं… अंतस का कोई नियम नहीं … कहीं भी कभी भी घूम जाता है. इस से किसी को सरोकार नहीं .. कोई जानना भी नहीं चाहता है.. कह दो तो भी लोग गवाह मांगेंगे … अब लाओ गवाह …. खैर ..चल रहे थे शायद… कहो कितना चल लिए यही कोई दस कदम नहीं शायद सौ.. क्या फर्क पड़ता है…
के वो कह रहे हैं
कुछ कहा है
हमने नहीं सुना
हमने कब कहा है
फिर भी ये मंज़र है
की न कुछ कहा है
न हमने कुछ सुना है
तृप्ति
nice poyem
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