नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
शब्दों के मायने समझने कि कोशिश करते हैं – नक्श -चित्र, निशान
फरियादी – फरियाद करने वाला, शोखी – तीखापन, दिलकशी, सुन्दरता,
तहरीर, -लिखावट, चित्र की रेखायें, पैरहन – लिबास, वस्त्र,
पैकर ए तस्वीर – चित्र का आकार
मिर्ज़ा ग़ालिब के दीवान यानि कि किताब का ये पहला शेर है -और इस पहले शेर के एहमियत कि बात ही कुछ और है -इसके दो माने साझा करूंगी – पहला जो किताबों में और ढूँढने पे कुछ साइट्स में मिले और दूसरा बार बार पढने पे, एक रचनाकार की हैसियत से मुझे जो समझ आया, ग़ालिब मुआफ करैं – सभी उस्ताद माफ़ करैं गर कोइ भूल चूक हो! गुस्ताखी मुआफ हो! वो कहते हैं न कि कोई भी रचना जब तक व्यक्तिगत तौर से आत्मसात न हो तब तक आप उस से खुद एक जुड़ाव महसूस कर नहीं कर सकते – और इस शेर ने मुझे बाँधा ही नहीं बल्कि स्याहदीप्ति के होने का विश्वास दिया है!
ईरान में एक रिवाज़ था जब भी कोई व्यक्ति विशेष तौर से जिसके साथ कोई अन्याय हुआ हो उसे फरियाद करना होता था तो वो एक कागज़ी लिबास पहन लेता था, उस लिबास को देखकर बादशाह को समझ आ जाता था कि फरियादी आया है और उसे इन्साफ चाहिए, उस तरह से दीवान कि शुरुआत में इस शेर का होना खुदा इश्वर भगवान् कि तरफ इशारा है कि किस खुदा से हम सब फ़रियाद करते हैं वही खुदा जिसने अपनी ही मौज में इस दुनिया को रच दिया – छोटे से छोटा आदमी बड़े से बड़ा आदमी सभी अपनी ही फ़रियाद कर रहे हैं उस इश्वर से जिसने अपनी इक मौज में हम सभी कि जीवनी लिख डाली – इस कागज़ी यानी कि जो हमारा नश्वर शरीर है उसमें कोई भी खुश नहीं है! तो इश्वर ने, भगवान् ने ऐसा क्यूँ किया!
ये भी एक समझ है कि किताब कि शुरुआत में ईश्वर को याद करना ज़रूरी होता है , और ग़ालिब का इशारा खुदा कि तरफ अपने ही अंदाज़ में हो
मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक जिसमें नसीर साहब ने अभिनय किया है – उसकी एक विडियो क्लिप देखी थी जिसमें इक महफ़िल में जब मिर्ज़ा ये शेर साझा करते हैं – तब सभी मौजूद शायरों को भी ये शेर बेहद भारी लगा था
कुछ विचार ऐसे भी मिले कि ये शेर ग़ालिब ने यूँ ही लिखा है इसका कोई अर्थ नहीं है
मेरी जो समझ बनी – एक रचनाकार कि हैसियत से, एक Poet जो बार शब्दों को बार बार पढ़ कर आत्मसात करता है-कोई भी रचनाकार जब अपनी रचना कि शुरुआत करता है तो मैंने सोचा वो क्यूँकर कि ऐसा लिखेगा -मैंने उसे अपने अनुभव से जोड़ा, जो कुछ भी मैंने अब तक थोडा बहोत लिखा है – जो कुछ भी हम रचते हैं या उसको उभारने कि कोशिश करते हैं, चाहे चित्र हो या कविता – वो उस रचनाकार की मौज पर बहोत निर्भर करता है, किस भावना ने प्रेरित क्या है – हर रचना, हर कृति जो बन कर निकलती है उस रचनाकार कि मौजूदा भावनाओं पर बहोत निर्भर करती है – रचनाकार जिस दिलकशी से उसे रचे वही दिलकशी उभर कर आती है – रचनाकार अपने साथ कई मनोभावों को ले कर लिखता है तो वो रचना भी फरियाद करती है कवी या शायर से – ये सच है कि शब्द भी फरियाद करते हैं उस कवी से उस रचनाकार से आपकी मौज , वो कौन सी मौज है और उस मौज से हम फरियाद करते हैं -कागज़ पे जो कुछ भी उभर कर आये, जो कुछ भी सुन्दर आये वो मौज बनी रहे ताकि जिस किसी भी चीज़ कि शुरुआत हम कर रहे हैं, किताब कि कविता कि, वो बेहद खूबसूरती से आये !
तो मुझे ऐसा लगता है कि ग़ालिब अपनी रचनाओं कि फ़रियाद अपनी मौज से कर रहे हैं- और कह रहे हैं कि भले ही ये लिबास कागज़ी है पर इसकी बनावट मेरी मौज, मेरी दिलकशी से भरी है
और क्यूंकि मिर्ज़ा ग़ालिब को हम सेलिब्रेट कर रहे हैं – एक शिष्य की हैसियत से मेरी भी एक फ़रियाद है ग़ालिब कि रचनाओं से कि परत दर परत ग़ालिब की गूढ़ कागज़ी रचनाओं को ठीक से समझ पाऊँ उनके साथ इन्साफ कर पाऊँ और भूल चूक उस्ताद माफ़ करैं!
ये थी मेरी समझ, आशा है और विश्वास है कि उस्ताद मिर्ज़ा ग़ालिब कि रचनायें यूँ ही मुझे प्रेरित करती रहेंगी और मेरी समझ बनाती रहेंगी, बढाती रहेंगी
इक कोशिश है इक हिम्मत है !