नहीं-वह नहीं जो कुछ मैंने जिया
बल्कि वह सब-वह सब जिसके द्वारा मैं जिया गया
नहीं,
वह नहीं जिसको मैंने ही चाहा, अवगाहा, उगाहा-
जो मेरे ही अनवरत प्रयासों से खिला
बल्कि वह जो अनजाने ही किसी पगडंडी पर अपने-आप
मेरे लिए खिला हुआ मिला
वह भी नहीं
जिसके सिर पंख बाँध-बाँध सूर्य तक उड़ा मैं,
गिरा-गिर गिर कर टूटा हूँ बार-बार
नहीं-बल्कि वह जो अथाह नीले शून्य-सा फैला रहा
मुझसे निरपेक्ष, निज में असम्पृक्त, निर्विकार
नहीं, वह नहीं, जिसे थकान में याद किया, पीड़ा में
पाया, उदासी में गाया
नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुँध गया
भर आया
जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को
अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा
पड़ता हुआ पाया-
हाय मैं नहीं,
मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है
-हर बार बचा है,
मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया
पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में, लक्ष्यहीन भटकन में
मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है-
-उसी ने रचा है !
धर्मवीर भारती जी का जन्मदिन २५ दिसम्बर को होता है – ये मुझे पता नहीं था मैं तो ग़ालिब को पढने और समझने में खोयी हुई थी पर वो कहते हैं न उस्ताद से जब वफ़ा रखो वो औरों से भी वफ़ा करना सिखाते हैं – धर्मवीर भारती जी ने मेरी हिंदी साहित्य की जानकारी की एक तरह से शुरुआत थी – घर पे जब मैं अपनी कॉमिक्स कि किताबें – चम्पक, नंदन अमर चित्र कथा इंद्रजाल पढ़ लेती थी तो मम्मी पापा के लिए आये धर्मयुग की बारी होती थी – धर्मयुग में कहानी ढूंढती और कार्टून भी – दोनों का ही बचपन से शौक था – धर्मयुग ने ही मेरा परिचय बचपन से हास्य कवी के. पी . सक्सेना जी, पद्मा सचदेवजी, शिवानी महादेवी वर्मा से कराया – उनकी सम्पदिकियी तो पढी थी पर उस पत्रिका के अलावा ये हैरत की बात है कि मैंने भारती जी कि कोई रचना नहीं पढ़ी – आज जैसे कोई अन्दर से कह रहा था कि २५ को किसी कवी कि है देखो – चेक तो करो – और जब मैंने देखा भारती जी तो खुद को रोक न पाई – उनकी कृतियाँ ढूँढी क्यूंकि उनकी कोई किताब मेरे पास नहीं हैं – और सभी कविताओं में सोचो क्या हाथ लगा – मैं तो उस जादुई क्षण में गुम गयी जैसे कोई खज़ाना मिला तो पर इतनी ख़ुशी हुई कि मैं खजाने को कैसे सम्भालूँ पता नहीं – अभी ग़ालिब के पहले शेर पे ही रचनाकारों की बात हुई थी और भारती जी की ये कविता कई धरातल पर छू गयी – मैंने इसे बार बार पढ़ा है पर इस वक़्त सही नहीं लगता कि मैं तैयार हूँ इसकी विवेचना करने के लिए – कई रास्तों पे ले जाती है ये कविता – हाँ उन पगडंडियों पे भी जहां पर अपने-आप
मेरे लिए वो खिला हुआ मिला – मेरा क्रिसमस गिफ्ट मुझे मिल गया – और आपका – इसे पढ़िए सुनिए आत्मसात कीजिये – और अगर आप लिखते हैं तो अपनी लिखने कि यात्रा से जोडीयेगा- मैं ज़रूर इस कविता के साथ फिर वापिस आऊँगी