काफी दिनों से कुछ नियम छूटा हुआ सा है… इस वर्ष की शुरुआत में तय किया था कि रोज़ लिखेंगे और खूब लिखेंगे पर शायद विचार गहरे नहीं हुए थे.. या नियम नहीं बना पाई … फिर तय करना कि सच … रोज़ … हो पायेगा … इस भाग दौड़ में … जहाँ शब्द आजकल मूक रहना जियादा पसंद करते हैं… या तय नहीं कर पाते उनके आने से कुछ फर्क पड़ेगा… जाने कैसे सी सकुचाहट हैं …मैंने तो नहीं रोका … खुद ही ठिठके से रहते हैं … या मिल के गुम जाते हैं…
…. मेरे सारथी मेरे शब्द…
…अभी तो बहोत जगह जाना है
… कई जगह हो आना है ….
ख़ामोशी भी निशब्द नहीं –
ख़ामोशी में सिर्फ आवाज़ नहीं …
ख़ामोशी के पार …
शब्द सरोवर में
गोता लगा आना है ..
चलो सारथी ….
तिनका हो …
या फूलों का मंज़र ..
या पूरा ही बागीचा हो…
कहो सारथी ..अब पथ पर निरंतर हमको चलना है..
कैसे कैसे घटित हुआ …
पृथ्वी के आर पार …
अंतरिक्ष के कई छोर …
चाँद की शीतल ज़मीन …
सूरज की चमकीली लौ …
तारों की टोली वोली …
चलो सारथी …
इन साँसों से उन साँसों तक ….
जो उठता गिरता ताना बाना …
इक तार या दो तार पे …
इनका कौतुक इठलाना ….
चलो सारथी …चलते हैं …
घने जंगलों में
जिस बरगद पे झूला झूलेंगे
उसी के राजा से फिर रस्ता नया पूछेंगे
… थक जाओ तो झरनों के कनारे कुछ पल यूँ ही सोयेंगे
… फिर उठेंगे और चलेंगे ….
चलो सारथी …
अब काव्य पथ पर निरंतर हमको चलना है
चलो सारथी …
तृप्ति (१३ मई २०२०)